Friday, September 2, 2011

दिल्ली





इस शहर में वो बात कहा
जो मेरे अपने शहर की थी.
जहा हर धूप की छाओं में
मैने सपने सेंकी थी.

यहा दीवारो से साये भी अब
सिल सी गयी है.
उम्मिदो से हिम्मत की परत
न जाने कब...छिल सी गयी है.

शाखो पर जो ये बूंदे पड़ी है कुछ-
वो आईना दिखती है.
गहराई में जो झाँको कभी
वो अंतरमन हिलती है.

क्या इन गलियो को तुमने- 
छु कर देखा है कभी?
धूल की चादर को यूही बदन पे-
तुमने ओढ़ा है कभी?

रूह बसती है इनमे. 

~*~