Saturday, March 10, 2012

मरासिम

इस अजनबी सी दुनिया मे 
इत्तेफ़ाक से ही शायद 
कई मोड़ पे तुम हमे मिल गये l
रन्जिशो को सांसो मे दबाए 
दबि हुई आवाज़ मे- कई बार तुम्हे 
पुकारा भी l
दस्तक तो तुम्हारे दिल ने भी सुनी थी शायद
हा ! सुनी थी न? 
पर जज़्बात उन आँखों से बयाँ ना हुए l
हमने  कई बार - कभी रुक के 
तो कभी मुड़ के  
चोर नज़रों से तुम्हे जताया भी l

यकिनन छूती थी तुम्हे  
हवाओ मे बहते हुए ये शब्द 
पर जानकर भी अन्जान से रहे बने तुम l
वरना हैरानगी ने तो कम से कम 
तुम्हारी नज़रों से मेरी नज़र तक का सफ़र
तय किया तो होता ll 

~*~